Kaushiki Chakraborty जी पटियाला घराने की प्रसिद्ध हिंदुस्तानी शास्त्रीय गायिका हैं, जिन्हें सुनना वास्तव में हर संगीत प्रेमी के लिए सौभाग्य की बात है। उनकी गायकी पटियाला घराने की शैली, जटिल तानों, लयकारी और भावप्रवणता के लिए जानी जाती है। खयाल, ठुमरी, दादरा और भजन, इन सभी विधाओं में उन्होंने अपनी अद्वितीय कुशलता का परिचय दिया है।
स्वरमंडल पर चलती उनकी कोमल उँगलियाँ, चेहरे पर उभरते भाव, और रागों की गहनता में उतरने का उनका ढंग,यह सब मिलकर श्रोता को एक सम्मोहक अनुभव प्रदान करता है। भला कोई संगीत रसिक उनसे मंत्रमुग्ध हुए बिना कैसे रह सकता है?
कौशिकी जी की गायकी की मिठास, तकनीकी विलक्षणता और भावनात्मक गहराई, भारतीय शास्त्रीय संगीत जगत में उन्हें एक विशिष्ट स्थान देती है। उनका संगीत आत्मिक और सांगीतिक दोनों स्तरों पर सौंदर्य का अनुभव कराता है। वोकल टेक्निक, रेंज और गहन अभिव्यक्ति उनके गायन की सबसे बड़ी विशेषताएँ हैं।
वो हर शब्द को ऐसे गाती हैं कि सुनने वाला उसकी पीड़ा और प्रेम दोनों महसूस कर पाता है।

कौशिकी जी को मैंने दूसरी बार लाइव सुना- पहली बार बोस्टन प्रवास के दौरान और दूसरी बार बैंगलुरु में,
श्री के. के. मूर्ति मेमोरियल संगीत समारोह के सुअवसर पर, जो 5 से 9 नवंबर तक चौड़ैया मेमोरियल हॉल में आयोजित हुआ।
प्रथम दिवस का शुभारंभ विदुषी वीणा सहस्त्रबुद्धे जी की शिष्या, विदुषी Mowna Ramachandra दीदी के सुमधुर गायन से हुआ।
इसके पश्चात कौशिकी जी मंच पर आईं और राग बिहाग की बंदिश “अब तो रट लागी मोरी” से कार्यक्रम की शुरुआत की।
श्रोताओं की माँग पर उन्होंने आगे राग यमन में ठुमरी प्रस्तुत की।
इससे पहले श्रोताओं से उनका सहज संवाद –
“बिहाग के बाद यमन? ओके, ‘कुंजम’ (थोड़ा सा) सुनाती हूँ।”
और जब दर्शकों ने कहा, “यहाँ तो ‘स्वल्पा’ कहा जाता है”,
तो मुस्कराकर उनका उत्तर था-
“आप मुझे सिखाइए, मैं एक बहुत अच्छी स्टूडेंट हूँ।”
यह विनम्रता और आत्मीयता दर्शकों के दिलों को छू गई।
इसके बाद राग चारुकेशी की फरमाइश पर उन्होंने “सैयाँ मोरा रे” प्रस्तुत किया
जिसमें विरह की अनुभूति ने पूरा सभागार भाव-विभोर कर दिया।
“दिन रजनी कैसे बीते, दिन रजनी बिना तेरे दर्शन…”
इस पंक्ति पर तो कई श्रोता अनायास भावुक हो उठे।
सिर्फ आवाज़ ही नहीं, बल्कि उनके चेहरे के भावों में भी राग के सभी रंग झलकते रहे।
अंत में उन्होंने लोकप्रिय भजन -“तुम आ जाना भगवान” से इस मधुर संध्या का समापन किया।
लगभग हजार दर्शकों की क्षमता वाले सभागार में बमुश्किल पाँच प्रतिशत सीटें खाली रहीं यह उनकी लोकप्रियता का प्रमाण था।
न केवल वरिष्ठ, बल्कि युवा वर्ग भी उनके गायन का समान रूप से प्रशंसक है।
मंच पर उनके साथ सारंगी पर उस्ताद Murad Ali Khan जी ने संगत की।
कौशिकी जी के स्वर जब भाव रचते हैं,
तब मुराद अली ख़ान जी की सारंगी उन भावों में प्राण भर देती है।
उनके साथ युवा Jyotirmoy Banerjee की हारमोनियम संगत और Ishaan Ghosh के तबला वादन ने महफ़िल में सचमुच चार चाँद लगा दिए।
मंच से उतरकर भी कौशिकी जी का अपनापन बना रहा –
प्रशंसकों के साथ सेल्फ़ी, ऑटोग्राफ, सहज बातचीत और विनम्र मुस्कान…
स्टारडम का लेशमात्र भी अभिमान नहीं!
यही गुण उन्हें एक कलाकार नहीं, बल्कि एक साधक के रूप में प्रतिष्ठित करते हैं।
एक महिला शास्त्रीय गायिका के रूप में उन्होंने न केवल संगीत की दुनिया में अपनी अलग पहचान बनाई, बल्कि भारतीय शास्त्रीय संगीत की गरिमा और गहराई को वैश्विक स्तर पर पहुँचाया। विदेशों में उनकी प्रस्तुतियाँ आज भारतीय संगीत की सशक्त पहचान बन चुकी हैं।
कौशिकी का जीवन और साधना इस बात का प्रमाण हैं कि परिवार के साथ रहते हुए भी, स्त्री अपनी कला को संपूर्ण समर्पण और निष्ठा से साध सकती है। वे उन सभी महिलाओं के लिए प्रेरणा हैं जो गृहस्थ जीवन और कला साधना के बीच संतुलन बनाते हुए अपनी स्वरयात्रा जारी रखे हुए हैं।
पिता पंडित अजय चक्रवर्ती जी की विरासत को संभालना, संजोना और आगे बढ़ाना निश्चय ही अनुकरणीय है।
और यही संस्कार उनके बारह वर्षीय पुत्र में भी झलकते हैं,
जिसने इस प्रस्तुति में तानपूरे पर माँ के साथ संगत की।
मुझे इस कार्यक्रम में आमंत्रित करने के लिए Meeta Gangrade दीदी का धन्यवाद।
यह संयोग ही था कि मेरे बैंगलुरु प्रवास के दौरान
मुझे इस अनुपम आयोजन को सुनने और महसूस करने का अवसर प्राप्त हुआ।















