जिनकी गज़लें हमारे बचपन और युवावस्था का हिस्सा रहीं,उन्हें प्रत्यक्ष सुनना किसी स्वप्न के साकार होने जैसा था।
सुरों के उस फ़कीर की कथा, जिनकी आवाज़ सीमाएँ नहीं जानती।
कहा जाता है कि संगीत भाषा और भूगोल की सीमा से परे है।
और इस सत्य को अपने सुरों से जीवनभर सिद्ध किया है ग़ज़ल के फ़कीर, ग़ुलाम अली साहब ने।
5 दिसंबर 1940 को सियालकोट में जन्मे ग़ुलाम अली जी को पटियाला घराने की तालीम से जन्मी नज़ाकत,बड़े गुलाम अली ख़ान साहब के परिवार से मिली संगीत शिक्षा,बरकत अली और मुबारक अली ख़ान की सीख,और नाम में ही पिता द्वारा दिया गया सुरों का आशीर्वाद, इन सबने उनकी गायकी को वह शास्त्रीय रंग दिया,जो हर ग़ज़ल में एक ठहराव, एक सुकून बनकर उतरता है।
मेरे इस वर्ष के बोस्टन प्रवास में उनका लाइव कॉन्सर्ट सुनना एक साधारण संगीतमय शाम नहीं,बल्कि भावनाओं का वह देशांतर था,जो मुझे वहाँ बैठे बैठे भारत में खींच लाया।
जब सुना कि ग़ुलाम अली जी का शो होने वाला है, तो तुरंत टिकट बुक किया और दिन गिनने शुरू हो गए।
मेरी वापसी का टिकट 30 अप्रैल का था और संयोगवश यह शो 27 अप्रैल का था।मेरे पास एक ही सप्ताहांत था और पतिदेव ने मुझे दो ऑप्शन दिए- या तो लॉस एंजल्स ट्रिप या ग़ुलाम अली जी का शो!
और चॉइस आपके सामने है।
सर्द मौसम, भारतीय परिवारों की भीड़, और खचाखच भरा सभागार…उन्होंने जब पहली ग़ज़ल गाना शुरू किया तो लगा कि संगीत सचमुच महाद्वीपों पर नहीं, दिलों पर राज करता है।
“चुपके चुपके रात दिन…” शुरू होते ही पूरी पीढ़ियाँ एक ही स्मृति बोध में बंध गईं, जैसे वर्षों पुराने किस्से फिर से साँस लेने लगे हों।
उस क्षण में उनकी वही विरल विनम्रता चमक उठी
जो किसी भी कलाकार को उसकी कला जितना ही ऊँचा बनाती है।
मंच पर उनका फकीराना रंग कॉन्सर्ट में कई बार जादू बिखेरता रहा। हर ग़ज़ल उन्होंने राग का परिचय,उसकी पकड़ और आरोह अवरोह बताते हुए गायी।
अपने चिर परिचित अंदाज़ में “दिल में एक लहर सी उठी है अभी” की प्रस्तुति के बीच उनके बेटे ने हँसते हुए कहा-
“अब उस्ताद जी के लहरों के वेरिएशन सुनिए।”
और सचमुच जब उन्होंने हारमोनियम पर “लहरा” बजाते वक़्त कुंजीवादक को धीरे से रुकने का संकेत दिया
तो “दिल में एक लहर” जो उठी,वह तालियों के सैलाब के साथ ही थमी।
ऐसे ही बीच ग़ज़ल में वे जैसे ही रुककर बोले,
“अब मेरा हंगामा भी सुनो…”
तो लहरों सी उठती उनकी तानें हॉल में गूँजती चली गईं।
फिर-“थोड़ी सी जो पी ली है”,उन्होंने एक हल्के शराबी अंदाज़ में सुनाई,तो पूरा सभागार ठहाकों से खिल उठा।
हर ग़ज़ल गाने के पहले उसके ग़ज़लकार का नाम लेना और हर शेर पढ़कर शायर की तारीफ़ करना दिल को छू गया।
यह टूर उन्होंने अपने बेटे और पोते के साथ किया था जो एक तरह से उनका ‘फ़ेयरवेल टूर’ था।
और कमाल की बात यह कि सभी संगत कलाकार भी भारतीय या भारतीय मूल के थे।
वे भारतीय होटल में ठहरे, भारतीय घर में सादगी का भोजन किया,भारतीय रेस्तराँ में खाना खाया।
भारत के हिंदू परिवार में जन्मे अमेरिकी नागरिक एवम “जय हो” शो के आयोजक जय कुमार शर्मा जी एवम उनकी पत्नी मधु जी जिन्होंने यह शो आयोजित किया था, वे शाकाहारी थे,तो उस्ताद जी ने उनके घर मूंग की दाल और गरम रोटी बनवाकर प्रसन्नचित्त भोजन किया।
सीमाएँ सचमुच केवल नक्शे पर होती हैं, दिलों पर नहीं, और कला बाँधती है, तोड़ती नहीं!
क्योंकि ग़ुलाम अली किसी एक देश की संपत्ति नहीं।
जहाँ उर्दू का शेर समझा जाता है,
जहाँ हिंदी–पंजाबी की मिठास है,
जहाँ संगीत में पनाह मिलती है,
वहाँ उनके स्वर अपना घर बना लेते हैं।
वे अक्सर अपने कार्यक्रमों में कहा करते हैं-
“दुआ करते रहिए कि ग़ज़लें हमेशा मुझसे प्यार करती रहें…”
और बोस्टन की उस शाम ने फिर याद दिलाया कि
कला कहाँ जन्म लेती है, यह नहीं…वरन् वह कैसे दिलों में बस जाती है ,यही कलाकार की असल सफलता है।
हालाँकि कुछ बातों ने मुझे बेहद विचलित किया जिनमें उनके टूर का नाम “फेयरवेल” टूर होना, इस उम्र में गाते समय स्वरों का टूटना, लेकिन फिर भी उसी अंदाज़ में गाना,उनका बेटे और पोते को रोककर अपने पुराने अंदाज़ में लहरे प्रस्तुत करना,गले पर 85 वर्ष की उम्र का असर,और जो दौर उन्होंने जिया है, जितनी प्रसिद्धि और प्रशंसा उन्होंने कमाई है जितने दिलों पर उन्होंने राज किया है,उसका उन्हें याद कर भावुक हो उठना ,ये सब कुछ देखकर मेरी आँखें भर आईं।
एक कलाकार के लिए उसकी कला ही उसकी चाहना होती है और ये कभी ख़त्म नहीं होनी चाहिए।उसे क्षीण होते देखना आसान नहीं!
ईश्वर उन्हें लंबी आयु प्रदान करें।
पैर छूने पर आशीर्वाद में उठे हाथ,ज़ेहन में गूँजती गज़लें और फिर कभी उन्हें लाइव न सुन पाने का ग़म और नम आँखें लिए हम घर लौट आए।
बाकी बहुत से किस्से रह गए जो शायद फिर कभी पोस्ट करूँगी।
तमाम प्रतिकूल परिस्थितियों के बावजूद भी इस कार्यक्रम को सफलतापूर्वक सम्पन्न कराने के लिए जय कुमार जी निश्चित रूप से बधाई के पात्र हैं।
वे केवल एक आयोजक नहीं, बल्कि भारतीय कलाकारों के लिए अमेरिका में परदेस में भी अपनेपन की अनुभूति कराने वाले सेतु हैं।
बॉलीवुड से लेकर भारतीय शास्त्रीय संगीत तक-देश की सांस्कृतिक जड़ों से जुड़े कलाकारों को विदेश में अवसर उपलब्ध कराना और उन्हें घर जैसा वातावरण देना, उनकी दूरदृष्टि, संवेदनशीलता और सांस्कृतिक प्रतिबद्धता को स्पष्ट रूप से दर्शाता है।















